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शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

poem-aatma ki prasanta

मेरा इस जगत में जन्म
मेरे माता-पिता के lie
हर्ष का कारण बना;
किन्तु 'मै' तो रोता हुआ आया
क्योंकि परमपिता परमात्मा
के परम -धाम से मुझे
यहाँ भेजा गया;
परमशान्ति से अशांति के इस
लोक में आने पर आत्मा
भला कैसे प्रसन्न होती?
माता -पिता ने बड़े
प्रयत्नों से मेरी इस देह का
पालन-पोषण किया.
वे प्रसन्न थे क्योंकि
मेरी मानव देह हृष्ट-पुष्ट
हो विकसित हो रही थी;
किन्तु मेरी आत्मा तो
धीरे-धीरे सांसारिक मोह-माया
से कलुषित हो रही थी;
देह के विकास के साथ-साथ
काम; क्रोध;मोह-ममता
के जाल में मेरी आत्मा  fansti गई;
जैसे निर्मल जल मैला हो जाता है
वैसे ही पारदर्शी मेरी आत्मा
मैली होती गई;सांसारिक लोभों से
मै स्वयं को; अपने अंतर्मन को'
अपने आतम-ज्ञान को भोल
भौतिक वस्तुओं और व्यापारों को
सब कुछ समझने लगा;
धन; मान; प्रतिष्ठा को पाकर
इठलाने; इतराने लगा;
मै हर्ष से पुलकित हुआ
पर आत्मा भला कैसे प्रसन्न होती?
आज मेरी देह निर्बल;रोगयुक्त
mratyushaiya पर पड़ी है;
मै दर्द से तड़प रहा हूँ;
मेरे नैनों में पश्चाताप के आंसू  हैं;
इस संसार में आकर ;क्या-क्या
कुकर्म किये? सबके द्रश्य मेरे
नेत्रों में एक-एक कर घोम रहे हैं;
मै आहें भर रहा हूँ;दुखी हूँ;
किन्तु मेरी आत्मा प्रसन्न है
क्योंकि आज इस देह से निकलकर
पुनः परमपिता के
पवान्लोक में प्रस्थान करने जा रही है;
आनन्दसागर में मिलने;मैली बूँद .
रुपी आत्मा पुनः swaachh होने  जा रही है .;;

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

वे प्रसन्न थे क्योंकि
मेरी मानव देह हृष्ट-पुष्ट
हो विकसित हो रही थी;
किन्तु मेरी आत्मा तो
धीरे-धीरे सांसारिक मोह-माया
से कलुषित हो रही थी;

अच्छा सोच लेती हैं आप शिखा .......
कुछ अलग सा लिखा है.... अच्छा लगा पढ़कर मेरा मतलब है
कुछ सोचने का मन किया .... अच्छा लगा

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति...दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएं।